ग़ज़ल क पाँच पेहलू है: बहर, क़ाफ़िया, रदीफ़, मतला, मक़ता. तो आइए इन पेहलुओं पर ग़ौर करें:
बहर (meter): बहर से मतलब शेर की लँबाई से है. मिसाल के तौर पर कुछ मुक़्तलिफ़ बहर के शेर ग़ौर फ़रमायें:
छोटी बहर का शेर
जब हम ही न महके तब साहिब
तुम बाद-ए-सबा कहलाओ तो क्या
दरमयाना बहर का शेर
ख़ामोशी का हासिल भी एक लम्बी सी ख़ामोशी है
उनकी बात सुनी भी हमने, अपनी बात सुनाई भी
ये अच्छा है के आपस के भरम ना टूटने पायें
कभी भी दोस्तों को आज़मा कर कुछ नहीं मिलता
लम्बी बहर का शेर
ऐ मेरे हमनशीं चल कहीं और चल, इस चमन में अब अपना गुज़ारा नहीं
बात होती गुलों की तो सह लेते हम, अब तो काँटों पे भी हक़ हमारा नहीं
रदीफ़: वे लफ़्ज़ जिनसे हर शेर का दूसरा मिसरा (line) एक सा खत्म होता सुनाई दे, रदीफ़ कहलाता है. मिसाल के तौर पे अगली ग़ज़ल का रदीफ़ 'होता' है:
ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता
तेरे वादे पर जिये हम, तो ये जान झूठ जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर एतबार होता
क़फ़िया: रदीफ़ से पेहले आने वाला वो लफ़्ज़ जो रदीफ़ की मदद करें. हमारी मिसाल में, 'यार', 'इन्तज़ार' और 'एतबार' सभी शेरों की क़फ़िया-बन्दी में मदद कर रहे हैं
मतला: ग़ज़ल के पेहले शेर के दोनों मिसरे (lines) रदीफ़ पर ही खत्म होते हैं. हमरी मिसाली ग़ज़ल का पेहला शेर इसकी मिसाल है:
ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता
मक़ता: आखिरी शेर में शयर का तख्खलुस इस्तेमाल करना मक़ते की मिसाल है. जैसे चचा ने अपने इस शेर में किया:
ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान 'ग़ालिब'
तुझे हम वली समझते, जो न बादा-ख़्वार होता
ग़ज़ल की पेहचान:
- ग़ज़ल सिर्फ़ शेरों से बनती है
- हर शेर के दोनों मिसरे बराबर 'बहर' के होने लाज़मी हैं
- ग़ज़ल के सभी शेर एक ही 'बहर' के होने लाज़मी हैं
- हर शेर में 'रदीफ़' और 'क़फ़िया' होना लाज़मी है
- ग़ज़ल में 'मतला' होना लाज़मी है
- मक़ता होना लाज़मी नहीं है
कुछ और जानकारी मिले तो रौशनी ज़रूर डालें
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