चचा ने क्या जी मे ठानी है, बता सका है कोई?
कोई दिन गर ज़िन्दग़ानी और है
अपने जी में हम ने ठानी और है
आतिश-ए दोज़ख़ में यह गरमी कहां
सोज़-ए ग़महा-ए निहानी और है
(जहन्नुम की आग मे भी वो गर्मी नहीं
जो हमारे छुपे हुए ग़मों की आग में है)
बारहा देखी हैं उन की रँजिशें
पर कुछ अब के सर-गरानी और है
दे के ख़त मुंह देखता है नामह-बर
कुछ तो पैग़ाम-ए ज़बानी और है
क़ात`-ए अ`मार हैं अकसर नुजूम
वह बला-ए आसमानी और है
(सितारे भले ही हमारी ज़िन्दग़ियाँ घटा सकते हों
पर मेरा महबूब तो कोई और ही बला है)
हो चुकीं ग़ालिब बलाएं सब तमाम
एक मर्ग-ए नागहानी और है
(मिर्ज़ा ग़ालिब)
Saturday, August 19, 2006
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1 comment:
मेरा भी पसंदीदा है आपका ये मोती !
गुलजार के टी वी सीरियल गालिब ने इस गजल को बेहद लोकप्रिय बना दिया था ।
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