Sunday, May 20, 2007

कल चौधवीं की रात थी

कल चौधवीं की रात थी, शब-भर रहा चर्चा तेरा
कुछ ने कहा ये चाँद है, कुछ ने कहा चेहरा तेरा

हम भी वहाँ मौजूद थे, हम से भी सब पूछा किये
हम हँस दिये, हम चुप रहे, मन्ज़ूर था पर्दा तेरा

इस शहर में किससे मिलें, हमसे तो छूटीं मेहफ़िलें
हर शक़्स तेरा नाम ले, हर शक़्स दीवाना तेरा

कूचे को तेरे छोड कर जोगी ही बन जायें मगर
जँगल तेरे, परबत तेरे, बस्ती तेरी सहरा तेरा
(सभी कुछ तो तेरा है!)

हम और रस्म-ए-बन्दग़ी, आशुफ़्तगी उफ़्तादगी
एहसान है क्या-क्या तेरा, ऐ हुस्न-ए-बेपरवा तेरा

दो अश्क़ जाने किस लिये, पलकों पे आकर टिक गये
अल्ताफ़ की बारिश तेरी, इकराम का दरया तेरा

ऐ बेदारेग़-ओ-बेअमाँ, हमने कभी की है फ़ुग़ाँ
हमको तेरी वहशत सही, हमको सही सौदा तेरा

तू बेवफ़ा तू मेहरबाँ, हम और तुझसे बदगुमाँ,
हमने तो पूछा था ज़रा, ये वक़्त क्यूँ ठहरा तेरा

हमपर ये सख्ती की नज़र, हम हैं फ़क़ीर-ए-रहगुज़र
रस्ता कभी रोका तेरा, दामन कभी थामा तेरा

हाँ-हा तेरी सूरत हसीं, लेकिन तू ऐसा भी नहीं
इस शक़्स के अश'आर से, शोहरा हुआ क्या-क्या तेरा

बेशक़ उसी का दोश है, कहता नहीं, खामोश है
तू आप कर ऐसी दवा, बीमार हो अच्छा तेरा

बेदर्द सुननी हो तो चल, कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल
आशिक़ तेरा रुसवा तेरा, शायर तेरा 'इन्शा' तेरा

(इब्न-ए-इन्शा)

3 comments:

Udan Tashtari said...

वाह भाई, हमारी पसंद की गजल पेश की है, तब तो साधुवाद. :)

Anonymous said...

जगजीत जी की आवाज़ के जादू ने इस गज़ल को ओर भी खूबसूरत बना दिया है।

Shayari Sharma said...

waah, bahut hi khoobsurat shabad hai, dil tak jaate hain...