Saturday, May 06, 2006

मन तड़पत

हालिया मरहूम मौसीक़ार 'नौशाद' की याद में यह बेहतरीन नग़मा पेश है.

वैसे मैंने सँगीत सीखा नहीं है, और न हि सँगीत को ज़्यादा समझता हूँ, पर इस गीत की खासियत यह है कि अगर आप इसे 'की-बोर्ड्' पर बजायें, तो नीचे से लेकर ऊपर तक, लगभग सभी सुर इस धुन पर लग जाते हैं:

मन तड़पत हरि दरसन को आज
मोरे तुम बिन बिगड़े सकल काज
आ, विनती करत, हूँ, रखियो लाज, मन तड़पत...

तुम्हरे द्वार का मैं हूँ जोगी
हमरी ओर नज़र कब होगी
सुन मोरे व्याकुल मन की बात, तड़पत हरी दरसन...

बिन गुरू ज्ञान कहाँ से पाऊँ
दीजो दान हरी गुन गाऊँ
सब गुनी जन पे तुम्हारा राज, तड़पत हरी...

मुरली मनोहर आस न तोड़ो
दुख भंजन मोरे साथ न छोड़ो
मोहे दरसन भिक्षा दे दो आज दे दो आज, ...

(शक़ील बदायुनी)

3 comments:

Anonymous said...

कवि : शकील बदायुनी
गायक : मो. रफी
संगीत : नौशाद

ये है भारत !

Rohit Wason said...

सही कहा आपने. यह उन अलगाव-वादियों को बतायें, जो राम और रहीम मे फ़र्क़ कुछ ज़्यादा ही समझते हैं

Basera said...

ये मत भूलें कि उन्हें इस काम के पैसे मिले थे। बिजनेस में भेदभाव नहीं होता, न हो सकता है।