जाति-पाति के भेद-भाव को लेकर, आज के समय की एक महान आत्मा की कुछ पन्क्तियाँ पढीं, तो मन को छू गयीं, ग़ौर फ़रमायें:
[...]
सब कुएँ, बावडी अपने हैं
सडकों तक पर चलने न दें
यदि वश चल जाये तो उनको
हम पृथ्वी-पवन न छूने दें
मैं पूछ रहा आखिर यह सब
किस न्याय-नीति के बल पर है?
हम बनें धर्म के करणधार,
पर अनाचार में तत्पर हैं
मैं सोचा करता कभी-कभी
क्या परमेश्वर भी मिथ्या है?
वह मूक बधिर-सा रहे देखता
यहाँ हो रहा क्या क्या है
हम इतना अत्याचार करें
निकले उसकी आवाज़ नहीं
धरती न फटे, नभ न टूटे
गिरती हम पर क्यों गाज नहीं
वह ईश नहीं, जगदीश नहीं
वह सच्चा धर्म-पुराण नहीं
जिसके आदेशों मे मानव को
है समता का स्थान नहीं
(सत्यनरायण गोयन्का)
Wednesday, May 24, 2006
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2 comments:
रोहित जी
बहुत सुंदर पंक्तियाँ,
श्रद्धेय गोयन्का जी ने ये पंक्तियाँ बहुत पुराने जमाने जमाने के बारे में लिखी हैं अब ना तो कोई इतना अत्याचार सहन करता है ना ही कोई इतना अत्याचार करता ही है,
बेहद मर्मस्पर्शी कविता है !
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