ताज़ा ज़माने की खस्ता-हालत-शहरी ज़िन्दग़ी के बयान का बेह्तरीन नमूना:
अब मैं राशन की क़तारों में नज़र आता हूँ
अपने खेतों से बिछडने की सज़ा पाता हूँ
इतनी महँगाई के बाज़ार से कुछ लाता हूँ
अपने बच्चों में उसे बाँट के शरमाता हूँ
अपनी नीँदों का लहू पोँछने की कोशिश में
जागते-जागते थक जाता हूँ, सो जाता हूँ
कोई चादर समझ के खीँच न ले फिर से 'खलील'
मैँ क़फ़न ओढ के 'फ़ुटपाथ्' पे सो जाता हूँ
(खलील धनतेजवी)
Friday, June 30, 2006
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1 comment:
बहुत दिनों बाद ऐसी नश्तर सी चुभती ग़ज़ल पढ़ी.
धन्यवाद.
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