ग़ुलाम अली की लरज़ती आवाज़ में पिरोया ये मोती भी बे-मिसाल है. आपको नहीँ लगता ये पाँचवा शेर कुछ ज़्यादा ही नर्म और सँगीन है? वैसे उन्होने इसे अपनी ग़ज़ल में रिकॉर्ड नहीं किया है:
मैं नज़र से पी रहा हूँ, ये समा बदल न जाए
न झुकाओ तुम निगाहें, कहीं रात ढल न जाए
मेरे अश्क़ भी हैं इसमें, ये शराब उबल न जाए
मेरा जाम छूने वाले, तेरा हाथ जल न जाए
अभी रात कुछ है बाक़ी, न उठा नक़ाब साक़ी
तेरा रिन्द गिरते-गिरते, कहीं फिर सँभल न जाए
मेरी ज़िन्दग़ी के मालिक मेरे दिल पे हाथ रखना
तेरे आने की खुशी में, मेरा दम निकल न जाए
मुझे फूँकने से पेहले, मेरा दिल निकाल लेना
ये किसी की है अमानत, कहीं साथ जल न जाए
इसी खौफ़ से नश-ए-मन न बना सका मैं 'अनवर'
के निगाह-ए-अहल-ए-गुलशन, कहीं फिर बदल न जाए
(अनवर मिर्ज़ापुरी)
Tuesday, June 27, 2006
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2 comments:
मोती अनमोल है ।
बहुत खूबसूरत गज़ल है ,गुलाम अली साहब नें इसे गाया भी बहुत अच्छा है ..
इसे हमारे साथ बाँटनें के लिये धन्यवाद
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