Thursday, July 13, 2006

सू-ए-मैक़दा न जाते

यूँ तो ग़ज़ल का चलन खूबसूरती को बयाँ करने के लिये हुआ, पर ऐसा कम ही होता है के अच्छी ग़ज़ल सामने आये, और मयनोशी की बात न हो:

सू-ए-मैक़दा न जाते, तो कुछ और बात होती
वो निगाह से पिलाते, तो कुछ और बात होती

गो हवा-ए-गुलिस्ताँ ने मेरे दिल की लाज रख ली
वो नक़ाब खुद उठाते, तो कुछ और बात होती

ये बजा कली ने खिलकर किया गुल्सिताँ मु-अत्तर
मगर आप मुस्कुराते, तो कुछ और बात होती

ये खुले-खुले-से गेसू, इन्हें लाख तू सँवारे
मेरे हाथ से सँवरते, तो कुछ और बात होती

गो हरम के रास्ते से वो पहुँच गये खुदा तक
तेरी रहगुज़र से जाते, तो कुछ और बात होती

(आग़ा हश्र)

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