चचा अपनी बडाई करने से भी नहीं चूकते. इस ग़ज़ल का अखिरी शेर इसी की मिसाल है. ऐसे शेर जिसमें शायर अपनी बडाई करे, उसे कभी-कभी 'ताली' भी कहते है
है बसकि हरेक उनके इशारे में निशाँ और
करते हैं मुहब्बत तो गुज़रता है गुमाँ और
या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको जो न दे मुझको ज़बाँ और
अबरू से है क्या उस निगाह-ए-नाज़ को पैबँद
है तीर मुक़र्रर मगर उसकी है कमाँ और
तुम शहर में हो तो हमें क्या ग़म, जब उठेंगे
ले आयेंगे बाज़ार से जाकर दिल-ओ-जाँ और
हर चँद सुबुकदस्त हुए बुतशिकनी में
हम हैं तो अभी राह में हैं सँग-ए-गिराँ और
है खून-ए-जिगर जोश में, दिल खोल के रोता
होते कई जो दीदा-ए-खूँ-नाबा-फ़िशाँ और
(आशिक़ के दिल में खून का ऐसा ग़ुबार है
जिसे बहाने के लिये दो नहीं, कई आँखे चाहियें)
मरता हूँ उस आवाज़ पर, हर चँद सर उड जाये
जल्लाद को लेकिन वो कहे जाये कि 'हाँ और'
(उसकी आवाज़ पे मरता हूँ
शर्त ये है, कि जल्लाद को मुझे मारने को वो कहे जाये)
लोगों को है खुर्शीद-ए-जहाँ-ताब का धोका
हर रोज़ दिखाता हूँ मैं इक दाग़-ए-निहाँ और
लेता न अगर दिल तुम्हें देता कोई दम चैन
करता जो न मरता कोई दिन आह-ओ-फुग़ाँ और
(तुम्हें दिल न दिया होता, तो कुछ और पल चैन मिल गया होता
अगर अभी मर न रहा होता, तो कुछ दिन और आहें भर ली होतीं)
पाते नहीं जब राह तो, चढ जाते हैं नाले
रुकती है मेरी ताबा तो होती है रवाँ और
हैं और भी दुनिया में सुखन्वर बहुत अच्छे
कहते है कि ग़ालिब का है अँदाज़-ए-बयाँ और
(मिर्ज़ा ग़ालिब)
Wednesday, August 09, 2006
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2 comments:
करते हैं मुहब्बत तो गुज़रता है गुमाँ और
ग़लती निकालने के लिये शुक्रिया रमण भाई. ग़लती सुधार ली गई है, आशा है मोती पसन्द आ रहे हैं
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