Sunday, August 13, 2006

ये न थी हमारी क़िस्मत

चचा का बेहतरीन कमाल:

ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता

तेरे वादे पर जिये हम, तो ये जान झूठ जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर एतबार होता
(तेरे वादे के सहारे हम जी लिये
तो उसे झूठ समज कर
क्यूँकि अगर सच मान लिया होता
तो खुशी के मारे मर ही गये होते)



तेरी नाज़ुकी से जाना कि बंधा था अहद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता अगर उसतवार होता

कोई मेरे दिल से पूछे, तेरे तीर-ए-नीमक़श को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता

ये कहां की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारा-साज़ होता कोई ग़मगुसार होता

रग-ए-सँग से टपकता वह लहू कि फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो यह अगर शरार होता
(पत्थर के दिल में भी रगें होतीं, और उससे लहू बहता,
अगर दिल में छुपा ग़म चिन्गारी कि शक़्ल ले-लेता ज्यों दिल पे चोट करने से लहू निकलता है, और पत्थर पे, चिन्गारी!)


ग़म अगरचे जां-गुसिल है पह कहां बचें कि दिल है
ग़म-ए-इशक़ गर न होता ग़म-ए-रोज़गार होता
(मुझे ग़म तो होना हि था, इससे कोई छुटकारा नहीं
इश्क़ का न होता, तो रोज़गार का होता)



कहूँ किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे कया बुरा था मरना अगर एक बार होता
(ग़म की रात का क्या बताऊँ? एक मौत तो सह लेता
बार-बार मरना गवारा नहीं)


हुए मर के हम जो रुसवा हुए कयूं न ग़र्क़-ए-दरया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता
(एक मुसल्मान के लिये दरिया में मरना नागवारा है,
क्यूँकि जन्नत नसीब होने के लिये, पहले कब्र नसीब होना ज़रूरी है
मगर वो भी मुझे गवारा होता
कम-स-कम, वो इस जिल्लत से तो बेहतर होता,
जो मेरे जनाज़े और मज़ार से मुझे मिली है?)


उसे कौन देख सकता कि यगाना है वो यकता
जो दूई की बू भी होती तो कहीं दो चार होता
(मेरा महबूब तो दिखाई ही नहीं देता,
उसकी यकता (oneness) तो बेमिसाल है
क्यूँकि अगर वो ज़रा भी दोगुला होता,
तो कहीं मिल ही जाया करता)



ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान 'ग़ालिब'
तुझे हम वली समझते, जो न बादा-ख़्वार होता
(ऐ ग़ालिब, तुझे हम संत/वली का दर्ज़ा देते
बस एक पीने की आदत खराब है!)



(मिर्ज़ा ग़ालिब)

2 comments:

Archana said...

Why this blog doesn't have make a link option.

Very Nice collection.

Anonymous said...

यकता का इस शे'र में अर्थ अद्वितीय(जिसके जैसा कोई दूसरा न हो) है|