इस ग़ज़ल के बारे में कुछ भी कहना, खुद को शर्मिन्दा करने के बराबर होगा:
चुपके-चुपके रात दिन, आँसू बहाना याद है
हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है
बा'हज़ार'हा इज़्तिराब-ओ सद'हज़ार'हा इश्तियाक़
तुझसे वो पेहले-पेहल दिल का लगाना याद है
तुझसे मिलते ही वो बेबाक़ हो जाना मेरा
और तेरा दाँतों में वो, उँगली दबाना याद है
खेंच लेना वो मेरा परदे का कोना दफ़-अतन
और दुपट्टे से तेरा वो, मुँह छुपाना याद है
जान कर सोता तुझे वो, क़सद-ए-पाबोसी मेरा
और तेरा ठुकरा के सर वो, मुसकुराना याद है
तुझ को जब तन्हा कभी पाना तो, अज़-राह-ए-लिहाज़
हाल-ए-दिल बातों ही बातों में जताना याद है
जब सिवा मेरे तुम्हारा कोई दीवाना न था
सच कहो क्या तुम को भी वो ख़ार-खाना याद है
ग़ैर की नज़रों से बचकर, सबकी मर्ज़ी के खिलाफ
वो तेरा चोरी-छिपे रातों को आना याद है
आ गया गर वस्ल की शब भी कहीँ ज़िक़्र-ए-फिराक़
वो तेरा रो-रो के, मुझको भी रुलाना याद है
दोपहर की धूप में, मेरे बुलाने के लिये
वो तेरा कोठे पे, नँगे पाँव आना याद है
देखाना मुझको जो बरगशता तो सौ-सौ नाज़ से
जब मना लेना तो फिर खुद रूठ जाना याद है
चोरी-चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह
मुद्दतें गुज़रीं, पर अब तक वो ठिकाना याद है
बेरुखी के साथ सुनना दर्द-ए-दिल की दसताँ
और तेरा हाथों में वो, कँगन घुमाना याद है
वक़्त-ए-रुख्सत अल'विदा का लफ्ज़ कहने के लिये
वो तेरे सूखे लबोँ का, थरथराना याद है
बा'वजूद-ए-इद्द'आ-ए-इत्तक़ा 'हसरत' मुझे
आज तक अह्द-ए-हवस का ये फ़साना याद है
(हसरत मोहानी)
Thursday, August 24, 2006
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