मीर की एक बेहतरीन ग़ज़ल:
देख तो दिल कि जाँ से उठता है
यह धुआँ-सा कहाँ से उठता है
गोर किस दिलजले की है यह फ़लक
शोला इक सुबह याँ से उठता है
खाना-ए-दिल से ज़िन्हार न जा
कोई ऐसे मकाँ से उठता है
नाला सर खेँचता है जब मेरा
शोर इक आसमाँ से उठता है
लडतीं हैं उसकी चश्म-ए-शोख जहाँ
एक आशोब वाँ से उठता है
सुध ले घर की भी शोला-ए-आवाज़
दूद कुछ आशियाँ से उठता है
बैठने कौन दे है फिर उसको
जो तेरे आसताँ से उठता है
यूँ उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है
इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है
बोझ कब नातवाँ से उठता है
(मीर तक़ी 'मीर')
Sunday, September 10, 2006
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1 comment:
Aapka blog vaakai, kaabil-e-taaref hai, sach mein chune huye moti samete hian aapne yahan...
Mere pasandida shayar Nida Fazli sahib ki bhi nazmein yahan padhna chahoongi...
Shukriya
Anu
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