Thursday, February 08, 2007

मिलती है खू-ए-यार से नार इल्तिहाब में

चचा का एक और कमाल!

मिलती है खू-ए-यार से नार इल्तिहाब में
क़ाफ़िर हूँ गर न मिलती हो राहत अज़ाब में
(जहन्नुम की आग बिलकुल मेरे महबूब के ग़ुस्से की तरह है. तो क्यूँ न मुझे जहन्नुम मे भी राहत मिले? दरअस्ल, जहन्नुम में राहत न मिले, तो मैं क़ाफ़िर! एक मुसल्मान के लिये क़फ़िर की जगह जहन्नुम में ही होती है, पर चचा ऐसे जहन्नुम की आग में भी राहत पाते हैं, जो महबूब के मिजाज़ की तरह गर्म है!)

कब से हूँ क्या बताऊँ जहान-ए-खराब में
शबहा-ए-हिज्र को भी रखूँ गर हिसाब में
(मेरी उम्र क्या होगी? अपने बद्क़िसमत दिनों क क्या हिसाब दूँ? जुदाई की रातें भी गिनूँ क्या?)

ता फिर न इन्तज़ार में नींद आए उम्र भर
आने का अहद कर गए आए जो ख्वाब में
(वो ख्वाब में आये, और आने का वादा कर गये. जब आँख खुली, तो वो न थे, पर अब इन्तज़ार में नींद भी नहीं आ रही - कहीं वो फिर ख्वाब में ही तो नहीं आने वाले थे? भई वाह!)

क़ासिद के आते-आते खत इक और लिख रखूँ
मैं जानता हूँ, जो वो लिखेंगे जवाब में
(बेहतरीन शेर! महबूब की फ़ितरत से मैं इतनी अच्छी तरह वाक़िफ़ हूँ, के हर बात पे उनका क्या जवाब होगा, मैं जानता हूँ. तो क़ासिद के आने का इन्तज़ार न करके उनके खत का जवाब ही लिख डालूँ)

मुझ तक कब उनकी बज़्म में आता था दौर-ए-जाम
साक़ी ने कुझ मिला न दिया हो शराब में
(एक और बेहतरीन शेर!! उनकी महफ़िल में ऐसा पेहले तो कभी न हुआ था के मुझे जाम नसीब होता. आज ये जाम मुझ तक कैसे आ गया? डरता हूँ के कहीं साक़ी ने इसमें कुछ मिला तो नहीं दिया?)

जो मुनकिर-ए-वफ़ा हो फ़रेब उसपे क्या चले
क्यूँ बदगुमाँ हूँ दोस्त से दुशमन के बाब में
(मेरा महबूब तो वफ़ा में यक़ीन ही नहीं करता. तो रक़ीब जितना भी चाहे, उसपे वफ़ा क फ़रेब नहीं कर सकता. तो मैं महबूब पे शक़ ही क्यूँ करूँ?)

मैं मुज़तरिब हूँ वस्ल में खौफ़-ए-रक़ीब से
डाला है तुमको वहम ने किस पेच-ओ-ताब में
(मैं भला मिलन के वक़्त क्यूँ रक़ीब का डर करूँ? किस वहम में पडी हो तुम?)

मैं और हिज़्ज़-ए-वस्ल खुदा-साज़ बात है
जाँ नज़र देनी भूल गया इज़्तिराब में
(मैं और वस्ल की खुशी! ये तो खुदा की ही क़रामात है! अरे! मैं इस खुशी में अपनी जाँ फ़िदा करना ही भूल गया)

है तेवरी चढी हुई अन्दर नक़ाब के
है इक शिकन पडी हुई तर्फ-ए-नक़ाब में
(तुम्हारे चेहरे पे ज़रूर तेवर चढे हुए है. इतने गहरे, के नक़ाब के ऊपर भी सिलवट पड गई!)

लाखों लगाव, इक चुराना निगाह का
लाखों बनाव, इक बिगडना इताब में
(तेरे लाखों लगाव, और एक नज़र चुराने की अदा, दोनो बराबर हैं! लाखों बनाव की अदाएँ, तेरे एक ग़ुस्से के बराबर हैं!)

वो नाला दिल में खस बराबर जगह न पाए
जिस नाले से शिगाफ़ पडे आफ़ताब में
(मेरे शिक़वे को उनके दिल में तिनके बराबर जगह नहीं मिलती! ऐसा शिक़वा जिससे सूरज में घाव हो जाए! वाह!)

वो सिह्‌र मुद्द-आ तलबी में न काम आए
जिस सिह्‌र से सफ़ीना रवाँ हो सराब में
(ऐसा जादू, जो सराब (मृगतृष्णा) जहाज़ बहा दे, ऐसा जादू यहाँ (मेहबूब के मामले में) बिलकुल काम नहीं आ रहा!)

'ग़ालिब' छुटी शराब पर अब भी कभी-कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में
(चचा पीना नहीं छोड सकते!!)


(मिर्ज़ा ग़ालिब)

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