Wednesday, March 21, 2007

नज़्म उलझी हुई है सीने में

गुलज़ार नज़्म लिखते हुए क़लम ही तोड देते हैं:

नज़्म उलझी हुई है सीने में
मिसरे अटके हुए हैं होंठों पर
उडते फिरते हैं तितलियों की तरह
लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं
कब से बैठा हूँ मैं जानम
सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा

बस तेरा नाम ही मुक़म्मल है
इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी

(गुलज़ार)

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