Friday, March 16, 2007

दिल में इक लहर-सी उठी है अभी

ग़ुलाम भाई की आवाज़, और ऐसी बेहतरीन शायरी के हम क्यूँ न ग़ुलाम हों?

दिल में इक लहर-सी उठी है अभी
कोई ताज़ा हवा चली है अभी

शोर बरपा है खाना-ए-दिल में
कोई दीवार-सी गिरी है अभी

कुछ तो नाज़ुक़ मिजाज़ हैं हम भी
और ये चोट भी नई है अभी

भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमी है अभी

तू शरीक़-ए-सुखन नहीं है तो क्या
हम-सुखन तेरी खामोशी है अभी

याद के बे-निशाँ जज़ीरों से
तेरी आवाज़ आ रही है अभी

शहर की बे-चराग़ गलियों में
ज़िन्दग़ी तुझको ढूँढती है अभी

सो गए लोग उस हवेली के
एक खिडकी मगर खुली है अभी

वक़्त अच्छा भी आएगा 'नसिर'
ग़म न कर ज़िन्दग़ी पडी है अभी

(नसिर क़ाज़मी)

2 comments:

योगेश समदर्शी said...

सो गए लोग उस हवेली के
एक खिडकी मगर खुली है अभी

वक़्त अच्छा भी आएगा 'नसिर'
ग़म न कर ज़िन्दग़ी पडी है अभी

बहुत अच्छी है

Poonam Misra said...

पहली बार आपके चिट्ठे पर आई हूँ इतने नायाब मोतियों के लिये आपकी शुक्र्गुज़ार हूँ.इसमें यूँ ही इज़ाफा करते रहिये.गुज़ारिश है आबिदा परवीन की गाई कुछ गज़लों को शामिल करं