बेग़म अख्तर ने इस पेहेले-ही से खूबसूरत ग़ज़ल को बखूबी निखारा है:
अब छलकते हुए साग़र नहीं देखे जाते
तौबा के बाद ये मन्ज़र नहीं देखे जाते
मस्त कर के मुझे औरों को लगा मुँह साक़ी
ये करम होश में रहकर नहीं देखे जाते
साथ हर एक को इस राह में चलना होगा
इश्क़ में रहज़न-ओ-रहबर नहीं देखे जाते
हमने देखा है ज़माने का बदलना लेकिन
उनके बदले हुए तेवर नहीं देखे जाते
(अली अहमद जलीली)
Friday, June 01, 2007
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1 comment:
हमने देखा है ज़माने का बदलना लेकिन
उनके बदले हुए तेवर नहीं देखे जाते
काबिले तारीफ़ है।
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