इब्तिदा-ए-इश्क़ है, रोता है क्या
आगे-आगे देखिये होता है क्या
क़ाफिले में सुबह के इक शोर है
यानी ग़ाफ़िल हम चले, सोता है क्या
सब्ज़ होती ही नहीं ये सर-ज़मीं
तुख्म-ए-ख्वाहिश दिल में तू बोता है क्या
ये निशान-ए-इश्क़ हैं जाते नहीं
दाग़ छाती के अबस धोता है क्या
ग़ैरत-ए-युसुफ़ है ये वक़्त-ए-अज़ीज़
'मीर' इसको राएग़ाँ खोता है क्या
(मीर तक़ी 'मीर')
Saturday, April 22, 2006
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