चार शेरों की इस ग़ज़ल में 'उमराव जान' की रूह पेश की गयी है. शौक़ फरमायें:
इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं
इन आँखों से वाबस्ता अफ़साने हज़ारों हैं
इक तुम ही नहीं तन्हा, उलफ़त में मेरी रुसवा
इस शहर में तुम जैसे दीवाने हज़ारों हैं
इक सिर्फ़ हम ही मय को आँखों से पिलाते हैं
कहने को तो दुनिया में मयखाने हज़ारों हैं
इस शम-ए-फ़रोज़ाँ को आंधी से डराते हो
इस शम-ए-फ़रोज़ाँ के परवाने हज़ारों हैं
(खय्याम)
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