ग़ुलाम अली की लरज़ती हुई आवाज़ हो, तो ग़ज़ल ग़ज़ल होती है:
हँगामा है क्यूँ बरपा, थोडी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है
नातजुर्बाकारी से वाइज़ की ये बातें हैं
इस रँग को क्या जानें, पूछो तो कभी पी है
उस मय से नहीं मतलब, दिल जिस से हो बेगाना
मक़सूद है उस मय से, दिल ही में जो खिँचती है
वाँ दिल में कि सदमें दो, याँ जी में कि सब सह लो
उनका भी अजब दिल है, मेरा भी अजब जी है
हर ज़र्रा चमकता है, अन्वार-ए-इलाही से
हर साँस ये कहती है, हम हैं तो खुदा भी है
सूरज में लगे धब्बा, फ़ितरत के करिश्में हैं
बुत हमको कहें 'क़ाफ़िर' अल्लाह की मरज़ी है
(अक़बर इलाहाबादी)
Friday, April 14, 2006
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