रफ़ी के कुछ गीत ऐसे हैं, जिन्हें सुनकर मदहोशी-सी आ जाती है, ये नग़मा उनमें से है:
अब क्या मिसाल दूँ मैं तुम्हारे शबाब की
इनसान बन गई है किरण माहताब की
अब क्या मिसाल दूँ ...
चेहरे में घुल गया है हसीं चाँदनी का नूर
आँखों में है चमन की जवाँ रात का सुरूर
गरदन है एक झुकी हुई डाली गुलाब की
अब क्या मिसाल दूँ ...
गेसू खुले तो शाम के दिल से धुआँ उठे
छूले कदम तो झुक के न फिर आस्माँ उठे
सौ बार झिलमिलाये शमा आफ़ताब की
अब क्या मिसाल दूँ ...
दीवार-ओ-दर का रंग, ये आँचल, ये पैरहन
घर का मेरे चिराग़ है बूटा सा ये बदन
तसवीर हो तुम्हीं मेरे जन्नत के ख़्वाब की
अब क्या मिसाल दूँ ...
(मजरूह सुल्तानपुरी)
Saturday, April 15, 2006
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