ग़ालिब की इस ग़ज़ल मे त'खय्युल (thought) और त'ग़ज़्ज़ुल (prose) दोनो का बेहतरीन नमूना है:
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसीं, के हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले
डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो खूँ को चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले
निकलना खुल्द से आदम का, सुनते आये हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले
भरम खुल जाये ज़ालिम तेरी क़ामत की दराज़ी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुरपेच-ओ-खम का पेच-ओ-खम निकले
अगर लिखवाये कोई उसको खत तो, हमसे लिखवाये
हुई सुबहा और घर से कान पर रखकर क़लम निकले
हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा-आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ से जाम-ए-जम निकले
हुई जिनसी तव्वक़ो खस्तग़ी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज़ियादा खस्ता-ए-तेग़-ए-सितम निकले
मुहब्बत में नही है, फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं, जिस क़ाफ़िर पे दम निकले
ज़रा कर ज़ोर सीने पर के तीर-ए-पुरसितम निकले
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले
खुदा के वास्ते परदा न क़ाबे से उठा ज़ालिम
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही क़ाफ़िर सनम निकले
कहाँ मैखाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते है, कल वो जाता था, के हम निकले
(मिर्ज़ा ग़ालिब)
Friday, May 12, 2006
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3 comments:
i was very happy to see your blog. i too had planned to start my own hindi blog. this is one of my favourite ghazals. i think i have the version sung be mehdi hassan. thanks for your blog.
hi its me again. i'm really desperate to start my own hindi blog. can u olz tell me how you got the hindi fonts and everything?
nice gazal.
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