आह को चाहिये इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
दाम-ए हर मौज में है हलक़ा-ए सद काम-ए निहँग
देखें कया गुज़रे है क़तरे पे गुहर होते तक
आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रँग करूं ख़ून-ए जिगर होते तक
हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएंगे हम तुम को ख़बर होते तक
परतव-ए-खुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
मैं भी हूं एक इनायत की नज़र होते तक
यक नज़र बेश नहीं फ़ुरसत-ए हस्ती, ग़ाफ़िल
गरमी-ए बज़्म है इक रक़स-ए-शरर होते तक
ग़म-ए हस्ती का 'असद' किस से हो जुज़-मर्ग इलाज
शमा हर रँग में जलती है सहर होते तक
(मिर्ज़ा ग़ालिब)
Sunday, August 06, 2006
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1 comment:
बहुत बढिया जनाब
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