कभी कहा न किसी से तेरे फ़साने को
न जाने कैसे खबर हो गई ज़माने को
चमन में बर्क़ नहीं छोडती किसी सूरत
तरह-तरह से बनाता हूँ आशियाने को
सुना है ग़ैर की महफ़िल में तुम न जाओगे
कहो तो आज सजा लूँ ग़रीबखाने को
दुआ बहार की माँगी तो इतने फूल खिले
कहीं जगह न मिली मेरे आशियाने को
चमन में जाना तो सय्याद देखकर जाना
अकेला छोडकर आया हूँ आशियाने को
मेरी लहद पे पतँगों का खून होता है
हु़ज़ूर शम्मा ने लाया करें जलाने को
दबा के चल दिये सब क़ब्र में दुआ न सलाम
ज़रा-सी देर में क्या हो गया ज़माने को
अब आगे इसमें तुम्हारा भी नाम आयेगा
जो हुक़्म हो तो यहीं छोड दूँ फ़साने को
'क़मर' ज़रा भी नहीं तुझको खौफ़-ए-रुसवाई
चले हो चाँदनी शब में उन्हे मनाने को
(क़मर जलालाबादी)
Monday, October 30, 2006
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1 comment:
कभी गुलज़ार साहब के बारे में भी लिखो
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