Monday, November 20, 2006

साँस लेना भी कैसी आदत है

गुलज़ार साहब की आज़ाद शायरी क जवाब है क्या?

साँस लेना भी कैसी आदत है
जिये जाना भी क्या रवायत है
कोई आहट नहीं बदन में कहीं
कोई साया नहीं है आँखों में
पाँव बेहिस हैं, चलते जाते हैं
इक सफ़र है, जो बहता रहता है
कितने बरसों से, कितनी सदियों से
जिए जाते हैं, जिए जाते हैं

आदतें भी अजीब होतीं हैं

('गुलज़ार')

1 comment:

Prabhakar Pandey said...

कितने बरसों से, कितनी सदियों से
जिए जाते हैं, जिए जाते हैं ।
गुलज़ार साहब की शायरी परोसने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद ।