मेहंदी हसन की शहद-सी आवाज़ में ये ग़ज़ल और भी मीठी लगती है:
रफ़्ता-रफ़्ता वो मेरी हस्ती का सामाँ हो गए
पेहले जाँ, फिर जान-ए-जाँ फिर जान-ए-जाना हो गए
दिन-ब-दिन बढने लगीं हुस्न की रानाइयाँ
पेहले गुल, फिर गुल-बदन फिर गुल-बदामाँ गए
आप तो नज़दीक से नज़दीकतर आते गए
पेहले दिल, फिर दिलरुबा, फिर दिल के मेहमाँ हो गए
(तसलीम फ़ाज़ली)
Friday, June 01, 2007
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1 comment:
Rishte khoon ke nahi hote,
Rishte ehsas ke hote hai,
Agar ehsas ho to ajnabi bhi apne,
or agar ehsas na ho to apne bhi ajnabi hote hai...
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