Monday, October 30, 2006

तुम्हारी अँजुमन से उठके

फ़रीदा खानम की मदभरी आवाज़ में पिरोए चन्द सच्चे मोती:

तुम्हारी अँजुमन से उठके दीवाने कहाँ जाते
जो वाबस्ता हुए तुमसे वो अफ़्साने कहाँ जाते

निकलकर दैर-ओ-क़ाबा से अगर मिलता न मैखाना
तो ठुकराए हुए इन्साँ, खुदा जाने कहाँ जाते

तुम्हारी बेरुखी ने लाज रख ली बादाखाने की
तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते

चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानग़ी अपनी
वगरना हम ज़माने भर को समझाने कहाँ जाते

'क़तील' अपना मुक़द्दर ग़म से बेग़ाना अगर होता
फिर तो अपने पराए हमसे पेहचाने कहाँ जाते

(क़तील शिफ़ाई)

1 comment:

Udan Tashtari said...

अच्छी प्रस्तुति है. बधाई.