छोटी-बहर की ये ग़ज़ल, चचा का एक और कमाल है:
दिल-ए नादां तुझे हुआ क्या है
अख़िर इस दर्द की दवा क्या है
हम हैं मुशताक़ और वह बेज़ार
या इलाही यह माजरा क्या है
मैं भी मुंह में ज़बान रखता हूं
काश पूछो कि मुदद`आ क्या है
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर यह हँगामा ऐ ख़ुदा क्या है
यह परी-चेहरा लोग कैसे हैं
ग़मज़ा-ओ-इशवा-ओ-अदा क्या है
(ये दुनिया में इतने सुँदर इन्सान कौन हैं?
और इनकी दिलक़श अदाओं का क्या मतलब है?)
शिकन-ए ज़ुलफ़-ए अनबरीं कयूं है
निगह-ए चशम-ए सुरमा-सा क्या है
सबज़ा-ओ-गुल कहां से आए हैं
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
हां भला कर तेरा भला होगा
और दरवेश की सदा क्या है
(ऐ खूबसूरत महबूब! कुछ हमपे भी नज़र-ए-करम कर
खुदा तेरा भी भला करे)
जान तुम पर निसार करता हूं
मैं नहीं जानता दुआ क्या है
('मेरी जान तुम्हारे सदक़े' की दुआ तो सब देते हैं
पर जीते रहकर ऐसा कहना भला किस काम का?
मैं तुमपर मरकर यह साबित किये देता हूँ
के मैने तुमपर जान निसार की)
मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है
(मेरी क़ीमत भले कुछ नहीं, चलो एक सौदा करे लें
मुझे मुफ़्त में अपना ग़ुलाम ही समझकर अपना लो,
मेरे इश्क़ को इससे बडा हासिल भला क्या होगा?)
(मिर्ज़ा ग़ालिब)
Friday, August 18, 2006
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2 comments:
मोती तो चुन चुन कर लाए हैं। धन्यवाद।
इस ग़ज़ल में मेरे विचार में परी-चारा के स्थान पर परी-चेहरा होना चाहिए।
ग़लती सुधार ली है रमण भाई! शुक्रिया!
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